Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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चौधरी यहाँ से निराश होकर चला गया। दूसरे दिन अभियोग चला। ताहिर अली दोषी पाए गए। वह अपनी सफाई न पेश कर सके। छ: महीने की सजा हो गई।
जब ताहिर अली कांस्टेबिलों के साथ जेल की तरफ जा रहे थे, तो उन्हें माहिर अली ताँगे पर सवार आता हुआ दिखाई दिया। उनका हृदय गद्गद हो गया। आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। समझे, माहिर मुझसे मिलने दौड़ा चला आता है। शायद आज ही आया है, और आते-ही-आते यह खबर पाकर बेकरार हो गया है। जब ताँगा समीप आ गया, तो वह चिल्लाकर रोने लगे। माहिर अली ने एक बार उन्हें देखा, लेकिन न सलाम-बंदगी की, न ताँगा रोका, न फिर इधर दृष्टिपात किया, मुँह फेर लिया, मानो देखा ही नहीं। ताँगा ताहिर अली की बगल से निकल गया। उनके मर्मस्थल पर एक सर्द आह निकली। एक बार फिर चिल्लाकर रोए। वह आनंद की धवनि थी, यह शोक का विलाप; वे आँसू की बूँदे थीं, ये खून की।
किंतु एक ही क्षण में उनकी आत्मवेदना शांत हो गई-माहिर ने मुझे देखा ही न होगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी जरूरी थी, लेकिन शायद वह किसी ख्याल में डूबा हुआ था। ऐसा होता भी तो है कि जब हम किसी खयाल में होते हैं, तो न सामने की चीजें दिखाई देती हैं, न करीब की बातें सुनाई देती हैं। यही सबब है। अच्छा ही हुआ कि उसने मुझे न देखा, नहीं तो इधर मुझे पदामत होती, उधर उसे रंज होता।
उधर माहिर अली मकान पर पहुँचे, तो छोटे भाई आकर लिपट गए। ताहिर अली के दोनों बच्चे भी दौड़े, और 'माहिर चाचा आए' कहकर उछलने-कूदने लगे। कुल्सूम भी रोती हुई निकल आई। सलाम-बंदनी के पश्चात् माहिर अपनी माता के पास गए। उसने उन्हें छाती से लगा लिया।
माहिर-तुम्हारा खत न जाता, तो अभी मैं थोड़े ही आता। इम्तहान के बाद ही तो वहाँ मजा आता है, कभी मैच, कभी दावत, कभी सैर,कभी मुशायरे। भाई साहब को यह क्या हिमाकत सूझी!
जैनब-बेगम साहब की फरमाइशें कैसे पूरी होतीं! जेवर चाहिए, जरदा चाहिए, जरी चाहिए, कहाँ से आता! उस पर कहती हैं, तुम्हीं लोगों ने उन्हें मटियामेट किया। पूछो, रोटी-दाल में ऐसा कौन-सा छप्पन टके का खर्च था? महीनों सिर में तेल डालना नसीब न होता था। अपने पास से पैसे निकालो, तो पान खाओ। उस पर इतने ताने!
माहिर-मैंने तो स्टेशन से आते हुए उन्हें जेल जाते देखा। मैं तो शर्म के मारे कुछ न बोला, बंदगी तक न की। आखिर लोग यही न कहते कि उनका भाई जेलखाने जा रहा है! मुँह फेरकर चला आया। भैया रो पड़े। मेरा दिल भी मसोस उठा, जी चाहता था, उनके गले लिपट जाऊँ;लेकिन शर्म आ गई। थानेदार कोई मामूली आदमी नहीं होता। उसका शुमार हुक्काम में होता है। इसका खयाल न करूँगा, तो बदनाम हो जाऊँगा।
जैनब-छ: महीने की सजा हुई है।
माहिर-जुर्म तो बड़ा था, लेकिन शायद हाकिम ने रहम किया।
जैनब-तुम्हारे अब्बा का लिहाज किया होगा, नहीं तो तीन साल से कम के लिए न जाते।
माहिर-खानदान में दाग लगा दिया। बुजुर्गों की आबरू खाक में मिला दी।
जैनब-खुदा न करे कि कोई मर्द औरत का कलमा पढ़े।
इतने में मामा नाश्ते के लिए मिठाइयाँ लाए। माहिर अली ने एक मिठाई जाहिर को दी, एक जाबिर को। इन दोनों ने जाकर साबिर और नसीमा को दिखाई। वे दोनों भी दौड़े। जैनब ने कहा-जाओ, खेलते क्यों नहीं! क्या सिर पर डट गए! न जाने कहाँ के मरभुखे छोकरे हैं। इन सबों के मारे कोई चीज मुँह में डालनी मुश्किल है। बला की तरह सिर पर सवार हो जाते हैं। रात-दिन खाते ही रहते हैं, फिर भी जी नहीं भरता।
रकिया-छिछोरी माँ के बच्चे और क्या होंगे!
माहिर ने एक-एक मिठाई उन दोनों को भी दी। तब बोले-गुजर-बसर की क्या सूरत होगी? भाभी के पास तो रुपये होंगे न?
जैनब-होंगे क्यों नहीं! इन्हीं रुपयों के लिए तो खसम को जेल भेजा। देखती हूँ, क्या इंतजाम करती हैं। यहाँ किसी को क्या गरज पड़ी है कि पूछने जाए।
माहिर-मुझे अभी न जाने कितने दिनों में जगह मिले। महीना-भर लग जाए, महीने लग जाएँ। तब तक मुझे दिक मत करना।
जैनब-तुम इसका गम न करो बेटा! वह अपना सँभालें, हमारा भी खुदा हाफिज है। वह पुलाव खाकर सोएँगी, तो हमें भी रूखी रोटियाँ मयस्सर हो ही जाएँगी।
जब शाम हो गई, तो जैनब ने मामा से कहा-जाकर बेगम साहब से पूछो, कुछ सौदा-सुल्फ आएगा, या आज मातम मनाया जाएगा?
मामा ने लौट आकर कहा-वह तो बैठी रो रही हैं। कहती हैं, जिसे भूख हो, खाए, मुझे नहीं खाना है।
जैनब-देखा! यह तो मैं पहले ही कहती थी कि साफ जवाब मिलेगा। जानती है कि लड़का परदेस से आया है, मगर पैसे न निकलेंगे। अपने और अपने बच्चों के लिए बाजार से खाना मँगवा लेगी, दूसरे खाएँ या मरें, उसकी बला से। खैर, उन्हें उनके मीठे टुकड़े मुबारक रहें, हमारा भी अल्लाह मालिक है।
कुल्सूम ने जब सुना था कि ताहिर अली को छ: महीने की सजा हो गई, तभी से उसकी आँखों में अंधोरा-सा छाया हुआ था। मामा का संदेशा सुना, तो जल उठी। बोली-उनसे कह दो, पकाएँ-खाएँ, यहाँ भूख नहीं है। बच्चों पर रहम आए, तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें।
मामा ने इसी वाक्य को अन्वय किया, जिसने अर्थ का अनर्थ कर दिया।
रात के नौ बज गए। कुल्सूम देख रही थी कि चूल्हा गर्म है। मसाले की सुगंध नाक में आ रही थी, बघार की आवाज भी सुनाई दे रही थी; लेकिन बड़ी देर तक कोई उसके बच्चों को बुलाने न आया, तो वह बैन कर-करके रोने लगी। उसे मालूम हो गया कि घरवालों ने साथ छोड़ दिया और अब मैं अनाथ हूँ, संसार में कोई मेरा नहीं। दोनों बच्चे रोते-रोते सो गए। उन्हीं के पैताने वह भी पड़ रही। भगवान्, ये दो-दो बच्चे, पास फूटी कौड़ी नहीं, घर के आदमियों का यह हाल, यह नाव कैसे पार लगेगी!
माहिर अली भोजन करने बैठे, तो मामा से पूछा-भाभी ने भी कुछ बाजार से मँगवाया है कि नहीं।
जैनब-मामा से मँगवाएँगी, तो परदा न खुल जाएगा? खुदा के फजल से साबिर सयाना हुआ। गुपचुप सौदे वही लाता है, और इतना घाघ है कि लाख फुसलाओ, पर मुँह नहीं खोलता।
माहिर-पूछ लेना। ऐसा न हो कि हम लोग खाकर सोएँ, और वह बेचारी रोजे से रह जाएँ।
जैनब-ऐसी अनीली नहीं है, वह हम-जैसों को चरा लाएँ। हाँ, पूछना मेरा फर्ज है, पूछ लूँगी।
रकिया-सालन और रोटी, किस मुँह से खाएँगी, उन्हें तो जरदा-शीरमाल चाहिए।
दूसरे दिन सबेरे दोनों बच्चे बावर्चीखाने में गए, तो जैनब ने ऐसी कड़ी निगाहों से देखा कि दोनों रोते हुए लौट आए। अब कुल्सूम से न रहा गया। वह झल्लाकर उठी और बावर्चीखाने में जाकर मामा से बोली-तूने बच्चों को खाना क्यों नहीं दिया रे? क्या इतनी जल्दी काया-पलट हो गई? इसी घर के पीछे हम मिट्टी में मिल गए और मेरे लड़के तड़पें, किसी को दर्द न आए?
मामा ने कहा-तो आप मुझसे क्या बिगड़ती हैं, मैं कौन होती हूँ, जैसा हुकुम पाती हूँ, वैसा करती हूँ।
जैनब अपने कमरे से बोली-तुम मिट्टी में मिल गईं, तो यहाँ किसने घर भर लिया। कल तक कुछ नाता निभा जाता था, वह भी तुमने तोड़ दिया। बनिए के यहाँ से कर्ज जिंस आई, तो मुँह में दाना गया। सौ कोस से लड़का आया, तुमने बात तक न पूछी। तुम्हारी नेकी कोई कहाँ तक गाए।

आज से कुल्सूम की रोटियाँ के लाले पड़ गए। माहिर अली कभी दोनों भाइयों को लेकर नानबाई की दूकान से भोजन कर आते, कभी किसी इष्ट-मित्र के मेहमान हो जाते। जैनब और रकिया के लिए मामा चुपके-चुपके अपने घर से खाना बना लाती। घर में चूल्हा न जलता। नसीमा और साबिर प्रात:काल घर से निकल जाते। कोई कुछ दे देता, तो खा लेते। जैनब और रकिया की सूरत से ऐसे डरते थे, जैसे चूहा बिल्ली से। माहिर के पास भी न जाते। बच्चे शत्रु और मित्र को खूब पहचानते हैं। अब वे प्यार के भूखे नहीं, दया के भूखे थे। रही कुल्सूम,उसके लिए गम ही काफी था। वह सीना-पिरोना जानती थी, चाहती तो सिलाई करके अपना निर्वाह कर लेती; पर जलन के मारे कुछ न करती थी। वह माहिर के मुँह में कालिख लगाना चाहती थी, चाहती थी कि दुनिया मेरी दशा को देखे और इन पर थूके। उसे अब ताहिर अली पर भी क्रोध आता था-तुम इसी लायक थे कि जेल में पड़े-पड़े चक्की पीसो। अब आँखें खुलेंगी। तुम्हें दुनिया के हँसने की फिक्र थी। अब दुनिया किसी पर नहीं हँसती! लोग मजे से मीठे लुकमे उड़ाते और मीठी नींद सोते हैं। किसी को तो नहीं देखती कि झूठ भी इन मतलब के बंदों की फजीहत करे। किसी को गरज ही क्या पड़ी है कि किसी पर हँसे। लोग समझते होंगे, ऐसे कमसमझों, लाज पर मरनेवालों की यही सजा है।

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